- 29 मई 1962 को बिहार के जहानाबाद जिले में जन्म
- बिहार की अरवल विधानसभा सीट से 2000-2004 तक विधायक रहे
- 2004 में भारत की चौदहवीं लोकसभा के सदस्य थे
- भारत के कृषि, उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण के मंत्री भी रहे
किसानों ने देश की मिट्टी के लिये रक्त भी बहाया है और उसे पसीने से भी सींचा है। आज लगातार विकसित होता भारत जिस नींव पर खड़ा है वो किसानों के श्रम-स्वेद-रक्त से निर्मित मिट्टी है। आज की कहानी एक ऐसे ही नायक की है जो इसी किसानी मिट्टी की उपज है। वो नायक हैं कांग्रेस के राज्यसभा सांसद अखिलेश प्रसाद सिंह।

1962 के मध्य में जब अरवल के कोयल गांव समेत सारा देश दो मोर्चे पर जूझ रहा था, एक ओर चीन के साथ सीमा पर तो दूसरी ओर उन तमाम अभावों से जो उसके निर्माण में बाधा बन रहे थे। समस्त देश में एक अजीब तनाव घुला था, जो ऊपर से तो नहीं दिख रहा था पर उसकी तपिश से सभी प्रभावित थे। उस इलाके के प्रसिद्ध किसान समाजसेवी शिव प्रसाद सिंह भी इस तपिश को भलीभांति महसूस कर रहे थे। वो समझ रहे थे कि आने वाला समय गरीबों, संसाधनहीन लोगों के लिये कितना संघर्षपूर्ण होने वाला है। यही कारण था कि, समाज के आखरी छोर पर खड़े बेबस इंसान की आवाज उठाने के बाद जो भी बचता वो अपनी पत्नी राजकुमारी देवी जी के साथ गुजारते, जो जल्द ही मां बनने वाली थी। वो चाहते थे कि हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज बुलंद करने की परंपरा जो उनके खानदान में पीढ़ियों से चली आ रही थी—को आगे ले जाने वाला वारिस जल्द से जल्द इस धरती पर आए। जल्द ही वो शुभ घड़ी आ भी गई। इस स्वावलंबी, स्वाभिमानी, समर्पित, संघर्षशील किसान परिवार के घर में- जब देश में नए भारत की लगभग पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी- एक किलकारी गूंजी। दिन था 29 मई। पिता शिव प्रसाद सिंह ने जब पहली बार बच्चे को देखा, तो सहसा उनके मुख से निकला – “इसकी आंखों में भगवान शंकर की तरह अनासक्ति है, चेहरे पर भी कल्याण का भाव है, मानो यह पूरी दुनियाँ का कल्याण करने आया है, इसका नाम अखिलेश होगा।”
अखिलेश बाबू का बचपन उस दौर में गुजरा जब देश लगातार स्वयं का निमार्ण कर रहा था। उस समय देश को एक मजबूत नींव की जरूरत थी। कठिन विषयों की समझ रखने वाले शिक्षकों की जरुरत थी। पिता शिव प्रसाद सिंह ने समय की इस मांग को समझते हुए अखिलेश बाबू को समर्थ शिक्षक बनाने का निर्णय लिया। इसके बाद अखिलेश बाबू की जो अध्ययन-यात्रा अरवल के कोयल गांव के प्राथमिक विद्यालय से आरंभ हुई, वो गया होते हुए, पटना के साइंस कॉलेज में जा कर समाप्त हुई। अब अखिलेश बाबू भौतिकी के बड़े विद्वान हो चुके थे, जो कॉलेज में शिक्षकों की अनुपस्थिति में कक्षाएं भी लेने लगे थे। जिसकी चर्चा कुछ इस तरह फैल रही थी कि उनके सहपाठी, छात्र और शिक्षक बस उनके प्रोफेसर पद पर नियुक्त होने की औपचारिकता पूरी होने का इंतजार कर रहे थे।
इस दौरान 1990 में एक बड़ी घटना घटी जिसने अखिलेश बाबू के शांत मन को बहुत उद्वेलित किया। असल इस वर्ष मंडल आयोग की सिफारिशों को लेकर सारा समाज दो खेमों में बटनें लगा था। धीरे धीरे इस आग की लपट ने देश को जलाना आरंभ कर दिया, जिसमें सबसे अधिक युवाओं का भविष्य झुलस रहा था। यही वो समय था जब अखिलेश बाबू के अंदर के नेतृत्व कर्ता नायक ने अपनी भूमिका को पहचाना और वो छात्र राजनिति में सक्रिय हो गए। असल में इस घटना ने अखिलेश बाबू की सोच को एक ठोस दिशा देने का कार्य किया। अखिलेश बाबू ने महसूस किया कि किस तरह छात्रों का जीवन, उनका भविष्य जातिगत तनाव या संसाधनों की कमी के कारण बर्बाद हो रहा है। बिहार में समुचित शिक्षा-व्यवस्था का अभाव को देखते हुए युवा अखिलेश बाबू ने उसी वक्त ठान लिया की वो इसे बदलेंगे। यही कारण था कि जब एक दिन कक्षा में प्रोफेसर ने छात्रों से पूछा की भविष्य में कौन क्या करना चाहता है तो जहां बाकी छात्र सरकारी – गैर सरकारी संस्थानों की मलाईदार नौकरियां करने को आतुर दिखे, वहीं अखिलेश बाबू ने सबसे कठिन व संघर्ष का रास्ता चुनने की ओर संकेत करते हुए दृढ़तापूर्वक कहा- “मैं सिर्फ नौकरी करने तक सीमित नहीं रहना चाहता, युवाओं को नौकरी पाने योग्य बनाना चाहता हूँ, समाज के लिए कुछ करना चाहता हूं, देश के हर संघर्षरत नागरिक की आवाज़ बनना चाहता हूं।“
संभव है, उस दिन कक्षा में अखिलेश बाबू की बातें लोगो को बचकानी या अगंभीर लगी हों पर आज अगर अखिलेश बाबू के कार्यों पर नजर दौड़ाई जाए तो कहना न होगा कि उन्होंने उस दिन अपनी कही बात का शब्द-शब्द सत्य सिद्ध किया है। अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को प्रमाणित करते हुए वो सक्रिय राजनिति में शामिल हो गए, इस क्रम में वो 1990 में राष्ट्रीय जनता दल से जुड़े और दस वर्षों तक अनासक्त भाव से एक समर्पित कार्यकर्ता की तरह जनता की एक एक समस्या का समाधान करने का प्रयास किया। सन् 2000 में राष्ट्रीय जनता दल ने उन्हें अरवल विधानसभा क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बनाया, जहां से जीत कर अखिलेश बाबू पहली बार बिहार विधानसभा पहुंचे और राज्य सरकार में स्वास्थ्य राज्य मंत्री के रूप में शामिल हुए। स्वास्थ्य राज्य मंत्री के रूप में अखिलेश बाबू ने बिहार को बदलने का बीड़ा उठाया। इस क्रम में बरसों से रुकी पड़ी सरकारी डॉक्टर की नियुक्तियां नियमित हुई, गुटखा तंबाकू पर प्रतिबंध भी लगाया गया। उनके इन क्रांतिकारी प्रयासों की गूंज अब सारे देश में फैल चुकी थी, और ये महसूस किया जाने लगा था कि ऐसे कुशल नेतृत्वकर्ता की जरुरत सारे देश को है। यही कारण था कि 2004 के लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल ने उन्हें मोतिहारी संसदीय क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बनाया। अखिलेश बाबू को इस चुनाव में भी जीत मिली और वे उम्मीद के मुताबिक केन्द्र सरकार में कृषि और उपभोक्ता मामले के राज्य मंत्री के पद पर सुशोभित हुए। केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री के रूप में भी उनका योगदान अतुलनीय है, उन्होंने मनरेगा जैसी जन योजना के ड्राफ्टिंग में अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह को अपना राजनीतिक गुरू मानने वाले अखिलेश बाबू वैसे तो सब को साथ लेकर चलने वाले उन विरले नेताओं में से एक हैं जिनका कोई राजनीतिक विरोधी नहीं है। लेकिन मुद्दों की राजनिति करने वाले अखिलेश बाबू के राजनीति पथ में एक ऐसा भी अवसर आया था जब उन्हें दल और जनता में से किसी एक को चुनना था, परिणाम ये हुआ कि जनहित में उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल का परित्याग कर दिया और 2010 में कांग्रेस में शामिल हो गए।
बिहार कांग्रेस के नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश प्रसाद सिंह फिलहाल राज्यसभा सांसद की भूमिका निभा रहे हैं. 15 मार्च 2018 को, वह बिहार राज्य से राज्यसभा के लिए निर्विरोध निर्वाचित हुए थे. राज्यसभा सदस्य होने के बावजूद भी अखिलेश प्रसाद सिंह का राज्य की राजनीति में बड़ा दखल है. यही वजह है कि बिहार के विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के चुनाव अभियान की जिम्मेदारी इनके ही कंधों पर थी।
आज अखिलेश बाबू निर्विवाद रूप से बिहार के सबसे बड़े बौद्धिक नेता हैं। वे हमेशा से मुद्दों की राजनिति करने में यकीन रखते हैं। उनके लिए जनता का हित सर्वोपरि है, और आज भी निस्वार्थ भाव से संसद में राज्य सभा सदस्य के रूप में जनता के हित की बात कर रहे हैं।
अखिलेश बाबू के कदम यहीं नहीं रुके हैं। उनके शब्दों में-“अभी तो बस जमीन तैयार की जा रही है।“ उनका असली सपना तो बिहार की स्थिति को बदलना है। उनका सपना बिहार के शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करना है, उनका सपना बहुतेरो मेडिकल कॉलेज और यूनिवर्सिटी खोलने का है, जिसमें बच्चों को न सिर्फ सही शिक्षा मिले बल्कि वो समाज में अपना योगदान देने वाले योग्य नागरिक भी बन सकें। दूसरे शब्दों में कहें तो एक अखिलेश बाबू अपने जैसे कई अखिलेश को तैयार करना चाहते हैं जो देश के कोने-कोने में जाकर जन-क्रांति की अलख को जला सके।
अखिलेश बाबू की इस लगन व तपस्या में बराबर का साथ उनकी पत्नी वीणा सिंह जी से मिलता है। वीणा सिंह जी ने भी बिहार की महिलाओं के को संबल प्रदान करने के लिए कई योजनाओं का नेतृत्व किया किया, उनको आत्मविश्वास देने का व समाज की मुख्यधारा मे लाने का प्रयास किया है। वो स्वयं एक प्रबुद्ध महिला हैं। अत: जीवन में संबलता का क्या महत्व होता है, समझती हैं और समाज के हर तबके को आर्थिक रूप से सक्षम बनाना चाहती हैं। उन्होनें परिवार की कमान अपने हाथ में ले रखी है और अखिलेश बाबू को उनके स्वप्न-पथ, लोक कल्याण मार्ग पर आगे बढ़ने के लिये मुक्त कर रखा है।
कहना न होगा पीढ़ियों से देश सेवा करता अखिलेश बाबू का परिवार- जिसमें देश हित के लिए अपना जीवन अर्पित करने की परंपरा रही है, किसानों को व्यवस्था के जाल से स्वतंत्र कराने की परंपरा रही है- आज भी अपने पारिवारिक मूल्यों से नहीं भटका है।बदलते समाज में भले ही भूमिका बदल गई हो पर अखिलेश बाबू आज भी एक स्वतंत्रता मार्ग के योद्धा से कम नहीं हैं। वो स्वतंत्रता दिला रहे हैं- समाज के सबसे कमजोर तबके को उसकी कमजोरी से, उसकी बेबसी से, उसके दर्द से, उसके अभाव से। जिसकी आज बिहार को ही नहीं समूचे देश को जरूरत है।