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नई शिक्षा नीति पर सवाल, MPhil का कोर्स बंद क्यों?

The end of MPhil

केंद्र सरकार ने 34 साल के बाद नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मंजूरी प्रदान की। इस नीति के तहत अब  MPhil के कोर्स को बंद कर दिया गया है। इसकी जगह पर स्टूडेंट्स मास्टर डिग्री या 4 साल बैचलर डिग्री प्रोग्राम करने के बाद पीएचडी कर सकते हैं। करीब 34 साल बाद आई शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं।  नई शिक्षा नीति पर  बहस भी जारी है, कुछ  शिक्षक इसके पक्ष में हैं, तो कई इस पर सवाल भी उठा रहे हैं। इसी मुद्दे पर पढ़िए दिल्ली यूनिवर्सिटी के शोधार्थी आशीष रंजन सिंह का ये आलेख

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अलविदा एमफिल 

दशकों से शिक्षा जगत में तुमने लोकप्रियता हासिल की थी, अपनी एक मजबूत जगह बनाई थी, बड़ी प्रतिष्ठा कमाई थी, लेकिन एक अस्थिर मानसिकता वाली सरकार ने एक झटके में तुम्हें स्मृतियों तक सीमित कर दिया।

 

MPhil कोर्स बंद क्यों?

दरअसल इस समय जो विचारधारा सत्ता में बैठी है, उसकी बस एक ही मंशा है कि उसकी भी कुछ पहचान बने, लेकिन इसके लिए वो अपनी लकीर बड़ी नहीं कर सकती क्योंकि वो विमर्श से ज्यादा विचारों को थोपना पसंद करती है। ऐसे में उसने एक आसान रास्ता अपनाया है, व दूसरी सरकारों की लकीर छोटी कर रही है। वो स्वयं सृजन तो नहीं कर सकती, इसलिए वो दूसरों के सृजन पर अपने रंग से पुताई कर के अपना नाम लिख दे रही है। वो स्वयं स्वीकार्य मानक स्थापित नहीं कर सकती तो वह दूसरी सरकारों द्वारा स्थापित लोकप्रिय स्वीकार्य मानकों को खत्म कर रही है। एमफिल के साथ भी यही किया गया है।

 

एमफिल कोर्स को समाप्त कर देना दरअसल न सिर्फ शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करेगा बल्कि इसका असर सामाजिक जीवन पर भी पड़ेगा। इसे तीन बातों से समझा जा सकता है।

  • पहली बात, एमफिल एक लघु शोध कार्यक्रम है जिसके आधार पर छात्र भारत या भारत से बाहर के अकादमिक क्षेत्र तथा रोजगार के क्षेत्र में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। यह कार्यक्रम उन छात्रों के लिए भी बहुत ही उपयोगी होता है, जिनको पीएचडी करने में थोड़ी असमर्थता होती है। ऐसे समय में जब सरकार नई शिक्षा नीति को लेकर अपनी तारीफ करते नहीं थक रही, यह दिखाने का प्रयास कर रही है कि इसमें छात्रों के पसंद के हिसाब से शिक्षा और विषय के चयन की स्वतंत्रता दी गई है। ऐसे में छात्रों से लघु शोध करने का विकल्प छीन लेना कहीं ना कहीं छात्रों के साथ अन्याय है तथा उन पर इस चीज का आरोपण है कि वे जब भी करेंगे तो पीएचडी के रूप में 5 वर्ष या उससे अधिक का शोध कार्य करेंगे।
  • दूसरी बात कि एमफिल सिर्फ एक सामान्य पाठ्यक्रम नहीं है बल्कि यह पीएचडी की पूर्वपीठिका है। जिसमें छात्र को न सिर्फ शोध करने का अभ्यास होता था बल्कि वह पीएचडी के दौरान अगले कुछ वर्ष एक विद्यार्थी और एक व्यक्ति के रूप में कैसे शिक्षा को समर्पित कर सके इसका भी अभ्यास होता था। नई शिक्षा नीति के तहत भले ही शोध की, शोध- प्रविधियों की जानकारी स्नातक पाठ्यक्रम में दे दी जाएगी लेकिन नई शिक्षा नीति ने एक छात्र से अध्ययन व सामान्य जीवन के बीच संतुलन स्थापित करने का एक अभ्यास तो छीन ही लिया है।
  • तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, एमफिल उन शैक्षणिक कार्यक्रमों में से एक है जो स्त्रियों को आगे बढ़ने के लिए संबल प्रदान करता है। हम इस चीज से इनकार नहीं कर सकते कि आज भी सामान्य भारतीय परिवारों में स्त्रियों के साथ शैक्षणिक स्तर पर दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। यह एक कटु सामाजिक तथ्य है कि अधिकतर स्त्रियों की पढ़ाई सिर्फ तभी तक कराई जाती है जब तक कि वह मूलभूत शिक्षा प्राप्त न कर लें अथवा उनका विवाह न हो जाए। ऐसे में स्त्रियां अगर एमफिल कोर्स में शामिल होती थी तो न सिर्फ इस आधार पर वह आर्थिक रूप से समर्थ होती थी बल्कि उनके पास अपनी पढ़ाई आगे जारी रखने के लिए, ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक मजबूत तर्क होता था। लेकिन, एक ऐसी सरकार जो नई शिक्षा नीति के नाम पर हर कुछ समय के बाद पढ़ाई छोड़ने के लिए एक ‘सॉफ्ट डोर’ खोल रही है, उससे एमफिल जैसे कोर्स के महत्व को समझने की उम्मीद रखना और उसे जारी रखने की उम्मीद करना भी बेमानी है।

बेहतर होता कि सरकार इसे एक स्वतंत्र डिग्री के रूप में जारी रखती जो न सिर्फ अकादमिक और रोजगार के क्षेत्र में छात्रों का सहयोगी सिद्ध होता बल्कि सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी उनकी मदद करता।

Disclaimer:- ये लेखक के निजी विचार हैं।

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